स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय
19 वी सदी के समाज सुधारको मे Swami Dayanand Saraswati ka अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है।
Swami Dayanand Saraswati |
दयानंद सरस्वती का जन्म कब और कहां हुआ था?
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में 12 फरवरी 1824 में गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर हुआ था।
पिता का नाम करसन लालजी तिवारी और मां का नाम यशोदा बाई था।उनके पिता एक कर कलेक्टर थे।स्वामी दयानंद सरस्वती जी का परिवार समृद्ध और प्रभावशाली था।
स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम मूलशंकर तिवारी था।यह एक साधारण व्यक्ति थे जो हमेशा अपने पिता की बातों का अनुसरण करते थे। पिता नौकरी करते थे घर में सभी प्रकार की सुविधाएं थी।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी के जीवन में बहुत से ऐसी घटनाएं हुई जिन्होंने उन्हें हिंदू धर्म की प्रारंभिक में पारंपरिक मान्यताओं और ईश्वर के अस्तित्व के बारे में से सोचने के लिए विवश कर दिया।
कहा जाता है कि एक बार शिवरात्रि की पूजा के लिए उनके घर के सभी सदस्य मंदिर गए थे और वह स्वयं घर में अकेले थे।उनके घर में भी शिवरात्रि की पूजा हुई थी और भगवान को भोग चढ़ाया गया था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने उस रात जागने का निर्णय लिया और यह देखने का निर्णय लिया कि भगवान कैसे आते हैं और वह किस तरीके से प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसी कारण वे पूरी रात जागते रहे। उन्होंने देखा कि रात में एक चूहा आया और वह भगवान के प्रसाद को खाने लगा। यह सब देखकर स्वामी दयानंद सरस्वती जी के मन में आया कि भगवान जब अपने चढ़ाए हुए प्रसाद की रक्षा नहीं कर सकते तो वह दूसरे लोगों की, पूरी मानवता की क्या रक्षा करेंगे।
इसी बात को लेकर उनकी उनके पिता से बहस भी हो जाती है।और भी कई ऐसी घटनाएं उनके जीवन में हुई जिसकी वजह से उनके माता-पिता चिंतित रहने लगे और उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती का विवाह किशोरावस्था में ही करने का निर्णय लिया,लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती ने निश्चय किया कि वह विवाह नहीं करेंगे और 1846 में सत्य की खोज करने के लिए अपने घर से निकल पड़े।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने गृह त्याग कब किया?
सन 1846 में 21 वर्ष की आयु में ही उन्होंने गृह त्याग दिया तथा ज्ञान की खोज में देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते रहे।
1860 में ही उनका संपर्क मथुरा के स्वामी विरजानंद से हुआ था।स्वामी जी के संपर्क में उन्होंने वेद विद्या का ज्ञान प्राप्त किया।
सन 1864 ईसवी से दयानंद ने उपदेशक के रूप में कार्य करना आरंभ कर दिया। 1869 में उन्होंने काशी के पंडितों के साथ शास्त्रार्थ किया।
1873 में कोलकाता आ गए और वहां पर उन्होंने बंगाल के प्रमुख सुधारको ईश्वर चंद्र विद्यासागर, केशव चंद्र सेन से भी मुलाकात की।
आर्य समाज की स्थापना
स्वामी दयानंद सरस्वती ,राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्मसमाज से प्रभावित हुए और उन्होंने धर्म के प्रचार हेतु कई संगठन की स्थापना करने का निश्चय किया।इसी निश्चय का परिणाम 10 अप्रैल 1875 मुंबई में प्रथम आर्य समाज की स्थापना के रूप में सामने आया ।
1877 में लाहौर में भी आर्य समाज की स्थापना हुई ।इसी अवसर पर समाज के संविधान को अंतिम रूप प्रदान किया गया
आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य
इस समाज का मुख्य उद्देश्य था वेदों में वर्णित धर्म व व्यवस्था को उसके शुद्ध रूप में फिर से स्थापित करना तथा ऐसा करने के लिए उन सब धार्मिक अंधविश्वासों कुरीतियों एवं परंपराओं का जिनका वेदों में उल्लेख नहीं है तथा जिन्हें कालांतर में अपना लिया गया उन्मूलन करना था।स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक धर्म में विश्वास रखते थे उन्होंने समाज में फैली हुई कुर्तियों अंधविश्वासों का हमेशा विरोध किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी के धर्म संबंधी विचार
स्वामी दयानंद सरस्वती के धर्म का आधार वेद थे। दयानंद सरस्वती ने वेदों को अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार किया, जो कुछ भी है वह वेदों में है।
उनका ऐसा मानना है कि वेद के बाहर कुछ भी नहीं है वैदिक धर्म की कसौटी पर कसकर ही दयानंद ने हिंदू धर्म के पुरोहितवाद, बहुदेववाद, मूर्ति पूजा व अन्य धार्मिक अंधविश्वास और कुरीतियों की आलोचना की।
ईसाई, जैन,बौद्ध धर्म तथा इस्लाम धर्म की आलोचना का भी आधार वेदों को बनाया गया। दूसरे धर्मों के साथ संघर्ष में दयानंद सरस्वती जी ने हिंदू धर्म को जुझारू आक्रामक तेवर प्रदान की।
शुद्धि व संगठन इस दिशा में उठाए गए कदम थे वेदों में पूज्य गाय की रक्षा के लिए उन्होंने "गौ रक्षिणी सभा"स्थापित की 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में गाय का प्रश्न देश में सांप्रदायिक झगड़े तथा विवाद उत्पन्न करने का एक मुख्य मुद्दा बन गया था।
समाज सुधार के रूप में दयानंद सरस्वती की भूमिका
दयानंद सरस्वती एक महान सुधारक थे अपने जीवन के लक्ष्य की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा था
"संसार अज्ञान तथा अंधविश्वास की श्रृंखला में जकड़ा हुआ है। मैं उस श्रृंखला को तोड़ने तथा दासो को मुक्त करने के लिए आया हूं।"
अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दयानंद ने सत्य की खोज और सत्य के अनुकरण पर जोर दिया उनका कथन था:-
"मेरा उद्देश्य मन वचन तथा कर्म से सत्य का अनुसरण करना है।"
सत्य की खोज में दयानंद सरस्वती जी ने मानव विवेक को आधार बनाने के लिए कहा इस प्रकार वह विवेक वादी थे इस विवेक बाद में उनमें सार्वभौम वाद की भावनाओं को जन्म दिया
समाज सुधार के क्षेत्र में दयानंद सरस्वती ने नारी उत्थान के लिए कार्य किया। उन्होंने बाल विवाह, बहु विवाह, दहेज प्रथा का विरोध किया स्त्री शिक्षा तथा विधवा विवाह का समर्थन किया।
जन्म पर आधारित जाति प्रथा को उन्होंने वेदों के विरुद्ध माना तथा कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था की पुनर्स्थापना का समर्थन किया।
जाति वर्ण के प्रश्न पर दयानंद सरस्वती के विचार कुछ विद्वानों के अनुसार क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के ना होकर औपचारिक सदा ही सुधार करने भर के थे।
दयानंद सरस्वती जी का देश की राजनीति में योगदान
दयानंद सरस्वती जी ने देश की राजनीति में सक्रिय भागीदारी नहीं की किंतु उनके विचारों ने भारतीय राष्ट्रवाद की पुनरुत्थान वादी धारा की दिशा का निर्धारण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दयानंद ने विदेशी राज्य को सदैव ही दुखदाई माना। अपने सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने लिखा:-
"विदेशी राज्य चाहे जितना अच्छा हो लेकिन सुखदायक नहीं हो सकता "।
उनका दृढ़ विश्वास था "कोई कितना ही कहे परंतु स्वदेशी राज्य सर्वोपरि होता है।"
इस तरह दयानंद का राजनीतिक संदेश स्वदेशी तथा स्वराज का था। यह वह सिद्धांत है जो लाल-बाल-पाल के काल में राष्ट्रवाद के प्रमुख नारे बन गए किंतु दयानंद के राष्ट्रवाद की भी सीमाएं थी , वह अखिल भारतीय राष्ट्रवाद ना ही था उनका राष्ट्रवाद हिंदुत्व का पुट लिए हुए था। अर्थात उनका राष्ट्रवाद हिंदू धर्म से प्रेरित था में
स्वामी दयानंद सरस्वती के उल्लेखनीय कार्य
Satyarth Prakash Book |
स्वामी दयानंद सरस्वती में समाज की दशा सुधारने के लिए आर्य समाज की स्थापना की
स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने ऐसे लोग जिन्होंने अपना हिंदू धर्म बदलकर किसी दूसरे धर्म को ग्रहण कर लिया था उन्हें फिर से हिंदू धर्म अपनाने की प्रेरणा दी।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने हिंदी भाषा में सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक तथा अनेक वेद भाषियों की रचना की।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्वराज तथा स्वदेशी जैसी अवधारणाओं को जन्म दिया जिसका आगे राष्ट्रीय आंदोलन में एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी की मृत्यु
स्वामी जी की मृत्यु के संबंध में भी यह आशंका की जाती है कि उनकी मृत्यु संभवतः विष दिए जाने के कारण ही हुई थी। स्वामी जी की मृत्यु ऐसी परिस्थिति में हुई जिससे यह लगता है कि अंग्रेजी सरकार का उनकी मृत्यु के पीछे कोई षड्यंत्र था। स्वामी जी की मृत्यु 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन संध्या के समय में हुई थी।
जिस समय उनकी मृत्यु हुई वह जोधपुर नरेश महाराज जसवंत सिंह के निमंत्रण पर जोधपुर गए थे।वहां उनके रोज ही प्रवचन होते थे।कभी-कभी महाराज जसवंत सिंह भी उनके चरणों में बैठकर उनके प्रवचन सुनते थे। कभी-कभी स्वामी दयानंद सरस्वती भी उनके महल में जाते थे।
वहां पर उन्होंने देखा कि महाराज जसवंत सिंह पर एक वैश्या का अत्यधिक प्रभाव है। स्वामी जी को यह देखकर बहुत बुरा लगा तो उन्होंने महाराज को इस बारे में बड़े ही विनम्रता से समझाया। उनकी बात को अच्छे से समझ कर महाराज ने वैश्या से अपना संबंध तोड़ लिया। इससे जो वैश्या थी वह स्वामी जी के विरुद्ध हो गई उसने स्वामी जी के रसोइए जगन्नाथ से मिलकर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया।
इससे स्वामी दयानंद सरस्वती की तबीयत खराब हो जाती है और उन्हें अजमेर के अस्पताल में भर्ती कराया जाता है।वहां पर जो चिकित्सक उनकी देखभाल कर रहा था,उस पर भी यह आरोप लगाया जाता है कि वह उन्हें दवा के नाम पर हल्का विष दे रहा था। जिससे धीरे-धीरे करके स्वामी जी की तबीयत अत्यंत खराब होगी और हालात यह हो गया कि उन्हें बचाना मुश्किल हो गया।
यह सब घटनाएं देख करके आशंका व्यक्त की जाती रही कि उनकी मृत्यु के पीछे अंग्रेजी सरकार का ही काम है उन्होंने ही वैश्या को बरगलाया होगा और चिकित्सक के सहारे धीरे-धीरे करके उन्हें विष दिलाया गया होगा।
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