Biography and thoughts of Pt.Jawaharlal Nehru: पंडित जवाहरलाल नेहरू का जीवन परिचय एवं विचार
Jawaharlal Nehru |
जवाहरलाल नेहरू का जन्म एवं पारिवारिक पृष्ठभूमि
स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जन्म 1879 ईस्वी में 14 नवंबर को इलाहाबाद में हुआ था।
इनके पिता का नाम मोतीलाल नेहरू था जो पेशे से बैरिस्टर थे।
माता का नाम स्वरुप रानी थिस्सू था जो लाहौर के एक कश्मीरी ब्राह्मण परिवार से थी।
जवाहरलाल नेहरू की दो बहने थी।बड़ी बहन का नाम विजयालक्ष्मी तथा छोटी बहन का नाम कृष्णा हठीसिंह था।
नेहरू की बड़ी बहन विजयालक्ष्मी संयुक्त राष्ट्र महासभा में पहली महिला अध्यक्ष बनी।
जवाहरलाल नेहरू की छोटी बहन कृष्णा एक प्रसिद्ध लेखिका बनी।
जवाहरलाल नेहरू की शिक्षा
15 साल की उम्र,बाल्यावस्था में ही शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें इंग्लैंड भेज दिया गया था।
हेलो तथा कैंब्रिज में शिक्षा प्राप्त कर 1912 में बैरिस्टर के रूप में पंडित नेहरू भारत वापस आ गए।
यहां आकर उन्होंने वकालत शुरू कर दी 1916 में उनकी शादी कमला नेहरू के साथ हुई
जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक जीवन का आरंभ कब हुआ?
जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक जीवन का आरंभ प्रथम विश्व युद्ध के काल में हुआ। वह होमरूल आंदोलन से जुड़े तथा इसकी सदस्यता भी ग्रहण की। राजनीति में उनकी असली शिक्षा 1919 में प्रारंभ हुई जब वह महात्मा गांधी के संपर्क में आए उसमें महात्मा गांधी ने रौलेट अधिनियम के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था।
1920 में गांधी ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया तो नेहरू ने उस में नेतृत्वकारी भूमिका अदा की। इस आंदोलन में भाग लेने के लिए उनको जेल जाना पड़ा। इस तरह जेल जाने का सिलसिला आरंभ हुआ जिसमें नेहरू कम से कम 9 बार जेल गए और कुल मिलाकर 9 साल तक जेल की सलाखों के पीछे रहे।
नेहरू के राजनीतिक जीवन का आरंभ कांग्रेसी के रूप में हुआ। 1923 में कांग्रेस पार्टी का महासचिव चुना गया।
जवाहरलाल नेहरू 1924 में इलाहाबाद के नगर निगम अध्यक्ष भी चुने गए।
1929 और 1946 में पार्टी के अध्यक्ष रहे।
असहयोग आंदोलन के दौरान उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलन से जुड़े। जल्दी ही वह कांग्रेस की युवा पीढ़ी के लोकप्रिय नेता बन गए।
नेहरू ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का स्वप्न आरंभ से ही देखा था तथा 1927 के कांग्रेस अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कराने में सफल रहे कि कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वराज होगा।
1928 में साइमन कमीशन के बहिष्कार आंदोलन का नेतृत्व करते हुए पुलिस लाठियों का निशाना बने।
नेहरू रिपोर्ट (मोतीलाल नेहरु की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट) ने औपनिवेशिक स्वराज्य का लक्ष्य रखा तो नेहरू ने उसका विरोध किया और अंत में समझौता हुआ कि यदि सरकार 1929 के अंत तक औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान नहीं करती है तो पूर्ण स्वराज घोषित किया जाएगा।
1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य की घोषणा की।26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया तथा गांधीजी को सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने के लिए अधिकृत किया।
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में लेहरु ने अपने भाषण में कहा "विदेशी शासन से अपने देश को मुक्त कराने के लिए अब हमें खुला विद्रोह करना होगा"
नमक कानून को तोड़कर खुला विद्रोह आरंभ हुआ तथा 14 अप्रैल 1929 को नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया।
संघर्ष का यह दौर गांधी इरविन समझौते के साथ समाप्त हुआ।जवाहरलाल नेहरू ने समझौते का खुला विरोध तो नहीं किया किंतु साथ ही वह इससे खुश भी नहीं थे।
26 दिसंबर 1930 को विलिंगटन की सरकार ने नेहरू को फिर से गिरफ्तार कर लिया क्योंकि वह मार्च के समझौते का पालन करने के स्थान पर कांग्रेस को कुचलने में ज्यादा रुचि रखते थे।
नेहरू को समाजवाद की ओर मोड़ने में भारत की गरीब जनता के दुख दर्द से उनका सीधा संपर्क तथा 1927 में उनकी यूरोप व सोवियत यूनियन की यात्रा का महत्वपूर्ण योगदान था। इस यात्रा से जवाहरलाल आत्म सजग क्रांतिकारी होकर लौटे थे ।
उन्होंन सुभाष के साथ मिलकर इंडिपेंडेंस का गठन किया तथा यूरोप में Brussels में आयोजित उपनिवेशवादी दमन तथा साम्राज्यवादी विरोधी सम्मेलन में भी भाग लिया ।
1933से 1936 के काल में नेहरू के समाजवादी विचार अधिक परिपक्व हो गए तथा गांधी की विचारधारा के बारे में कई संदेह उनके दिमाग में उठने लगे।
सविनय अवज्ञा आंदोलन की असफलता के उपरांत नेहरू ने आजादी की लड़ाई की नई रणनीति तैयार करने के प्रश्न पर गहराई के साथ मनन किया।
1935 के संविधान कानून का नेहरू ने कड़ाई से विरोध किया उसके अंतर्गत चुनाव लड़ने की नीति के पक्षधर नहीं थे इस मुद्दे पर उन्होंने कांग्रेस के अंदर अपने प्रतिद्वंद्वियों पर तीखे प्रहार किए।
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नेहरू के इस प्रकार के रवैया को देखकर अंग्रेजी सरकार को यह लगने लगा कि नेहरू जी तो खुद ही कांग्रेस को बर्बाद कर रहे हैं और उसे तोड़ रहे हैं। लेकिन उनकी यह धारणा गलत थी।
जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस को तोड़ने के स्थान पर उसकी नीतियों को बहुत ही दृढ़ता के साथ जनता के मध्य पहुंचाया ।1936-1935 में उन्होंने चुनाव प्रचार के दौर में 5 माह से कम समय में 80000 किलोमीटर की यात्रा की और लगभग एक करोड़ जनता को संबोधित किया।
चुनाव अभियान तथा परिणाम ने नेहरू को प्रभावित किया तथा वह मानने लगे कि संघर्ष की गांधीवादी नीति सही है।चुनाव के उपरांत कांग्रेस ने कई प्रांतों में सरकार का गठन किया।
जिन्ना चाहते थे कि संयुक्त प्रांत में लीग को सरकार में स्थान मिले, किंतु नेहरू के कारण ऐसा नहीं हो सका और इसी आधार पर जिन्ना की सांप्रदायिक राजनीति के उभार के लिए उनकी हठधर्मिता को एक बड़ी सीमा तक जिम्मेदार माना गया।
1938 में बोस ने कांग्रेस की राष्ट्रीय योजना समिति का गठन किया तथा उसका अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को बनाया 1937 से 39 के बीच मध्य काल में कांग्रेस सरकारों के काम से नेहरू पूर्णता संतुष्ट नहीं थे।
जवाहरलाल नेहरू ने गांधी को 28 अप्रैल 1938 में लिखा" मैं शिद्दत से महसूस कर रहा हूं कि कांग्रेस मंत्रिमंडल बहुत अक्षम तरीके से काम कर रहे हैं और जितना भी कर सकते हैं उतना भी नहीं कर रहे हैं।"
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 1935 के बाद का समय फासीवादी ताकतों के आक्रामक होने का समय था। इस स्थिति में नेहरू ने कर्म एवं वाणी से फांसीवादी हमलों का विरोध किया। इस पर इटालियन आक्रमण के विरोध में उन्होंने मुसोलिनी से मुलाकात के निमंत्रण को ठुकरा दिया।
गृह युद्ध के दौर में स्पेन की यात्रा कृष्ण मेनन के साथ कर उन्होंने फ्रैकों के खिलाफ लोकतंत्र का साथ दिया चेकोस्लोवाकिया के विरुद्ध जर्मन कार्यवाही के विरोध में नेहरू ने बर्लिन की राजकीय यात्रा रद्द कर दी ।जापानी हमले के विरुद्ध वह चीन की जनता के साथ थे।
द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ होने पर जवाहरलाल नेहरू की सहानुभूति फांसी ताकतों के खिलाफ मित्र राज्यों के साथ थी। उन्होंने इसे पसंद नहीं किया कि भारत को बिना उसकी मर्जी के युद्ध में शामिल कर लिया जाए।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में नेहरू को लगभग 3 वर्ष का समय जेल में व्यतीत करना पड़ा।
1946 में उन्होंने आजाद हिंद फौज के कैदियों का मुकदमा भी लड़ा।उसी वर्ष गठित अंतरिम सरकार में प्रधानमंत्री बने।
आरंभ में जवाहरलाल नेहरू भारत के विभाजन के विरुद्ध थे लेकिन देश के बिगड़ते हुए हालात तथा कुछ सूत्रों के अनुसार लेडी माउंटबेटन के व्यक्तिगत प्रभाव के कारण उन्होंने विभाजन की योजना स्वीकार कर ली।
15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत का ध्वज के द्वारा फहराया गया तथा मई 1964 में अपनी मृत्यु तक वह स्वतंत्र देश के प्रधानमंत्री रहे।
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जवाहरलाल नेहरू का दर्शन
दर्शन के क्षेत्र में नेहरू को संशयवादी कहा जाता है। जहां तक भारतीय दर्शन का प्रश्न था, नेहरू वेदांत के अद्वैत दर्शन के प्रति ज्यादा आकर्षित थे।धर्म के क्षेत्र में नेहरू पूर्णता नास्तिक नहीं थे।वह सर्वेश्वर वाद की अवधारणा से प्रभावित थे।
अपने इतिहास दर्शन में इतिहास के निर्धारक तत्व के रूप में नेहरू ने वस्तुगत शक्तियों को प्रमुख स्थान दिया है। इन वस्तुगत शक्तियों में भी उनका जोर आर्थिक तत्व पर अधिक रहा है, किंतु इसके साथ ही उन्होंने इतिहास में महान व्यक्तियों की प्रभावी भूमिका को स्वीकार किया है।
जवाहरलाल नेहरू के इतिहास दर्शन को निर्धारित करने में मार्क्सवाद की महत्वपूर्ण भूमिका रही।मार्क्सवाद और सोवियत क्रांति का प्रभाव भी नेहरू को पूर्णता मार्क्सवादी कभी नहीं बना सका।
जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित पुस्तक भारत की खोज में नेहरू ने स्वीकार किया मार्क्स और लेनिन के अध्ययन ने मेरे मन पर शक्तिशाली प्रभाव डाला,लेकिन उसने मुझे पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं किया और ना मेरे मन के सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। मेरे मन में प्रायः अनजाने एक अस्पष्ट प्रतिवादी चिंतन पद्धति कार्य करने लगती थी तो बहुत कुछ वेदांती दृष्टिकोण के सदृश थी।
नेहरू पक्के राष्ट्रवादी थे। वह राष्ट्रों के आत्म निर्णय के अधिकार में विश्वास रखते थे ।जवाहरलाल नेहरू राष्ट्र की एकता के पक्षधर थे।
हिंदू, मुस्लिम झगड़े तथा समाज की वर्गीकरण संरचना और वर्गीय शोषण का उन्होंने विरोध किया और कहा कि किसी भी देश की विकास में यह सब बाधक हैं।
भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य व्यवस्था की स्थापना में जवाहरलाल नेहरू का उल्लेखनीय योगदान रहा है।
जवाहरलाल नेहरू शासन की संसदीय शासन पद्धति में विश्वास रखते थे।वह अधिनायकवाद के विरोधी थे।
अंतरराष्ट्रीय जगत में नेहरू ने गुटबाजी और संघर्ष के स्थान पर सहयोग तथा शांति पर बल दिया और गुटनिरपेक्षता तथा पंचशील के सिद्धांतों को स्वीकार किया।
जवाहरलाल नेहरू की आर्थिक विचारधारा
आर्थिक क्षेत्र में जवाहरलाल नेहरू समाजवाद के अनुयाई थे। लखनऊ कांग्रेस के अध्यक्ष भषण में उन्होंने कहा था "मुझे पक्का विश्वास हो चला है कि विश्व की और भारत की समस्याओं के समाधान की एकमात्र कुंजीसमाजवाद है।"
इसी भाषण में समाजवाद को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा "जिसका मतलब होता है व्यक्तिगत संपत्ति की समाप्ति सीमित अर्थों को छोड़कर जिसका मतलब होता है वर्तमान लाभ की व्यवस्था के स्थान पर सहकारी सेवा के उच्चतम आदर्श की प्रतिष्ठा"।
स्वतंत्र भारत में नियोजित अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक क्षेत्र, सहकारी खेती तथा औद्योगिक विकास पर बल जवाहरलाल नेहरू के इन्हीं विचारों का परिणाम था किंतु मिश्रित अर्थव्यवस्था का नेहरू मॉडल सही अर्थों में समाजवाद की स्थापना की दिशा में ठोस कदम नहीं था।
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