ब्रह्म तेज के मूर्तिमान स्वरूप महर्षि अगस्त्य का पावन चरित्र अत्यंत उदात्त एवं दिव्य है । वेदों में इनका वर्णन आया है।ऋग्वेद का कथन है कि मित्र तथा वरुण नामक देवताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञ कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्यतेज संपन्न महर्षि अगस्त का प्रादुर्भाव हुआ।
एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार एक यज्ञ में उर्वशी भी सम्मिलित हुई थी। मित्र, वरुण ने उसकी ओर देखा तो उस पर अत्यन्त आसक्त हुए।जिसके कारण वह अपने वीर्य को रोक नहीं पाए। उर्वशी ने जब यह देखा तो उनका उपहास करने के लिए मुस्कराहट बिखरे दी। यह देखकर मित्र वरुण बहुत ही शर्मिंदा हुए। परंतु वह अपना वीर्य निकलने से रोक नहीं पाए ।जहाँ यज्ञ हो रहा था वह स्थान, जल और कुंभ, सब ही अत्यंत पवित्र थे। यज्ञ के अंतराल में ही कुंभ में वीर्य स्खलित होने के कारण कुंभ से अग्य, स्थल में वसिष्ठ और जल में मत्स्यजीव का जन्म हुआ। और उर्वशी इन तीनों की मानस जननी मानी गयी।
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एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार एक यज्ञ में उर्वशी भी सम्मिलित हुई थी। मित्र, वरुण ने उसकी ओर देखा तो उस पर अत्यन्त आसक्त हुए।जिसके कारण वह अपने वीर्य को रोक नहीं पाए। उर्वशी ने जब यह देखा तो उनका उपहास करने के लिए मुस्कराहट बिखरे दी। यह देखकर मित्र वरुण बहुत ही शर्मिंदा हुए। परंतु वह अपना वीर्य निकलने से रोक नहीं पाए ।जहाँ यज्ञ हो रहा था वह स्थान, जल और कुंभ, सब ही अत्यंत पवित्र थे। यज्ञ के अंतराल में ही कुंभ में वीर्य स्खलित होने के कारण कुंभ से अग्य, स्थल में वसिष्ठ और जल में मत्स्यजीव का जन्म हुआ। और उर्वशी इन तीनों की मानस जननी मानी गयी।
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महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। महर्षि अगस्त्य को पुलस्त्य ऋषि का पुत्र माना जाता है। उनके भाई का नाम विश्रवा था जो रावण के पिता थे। पुलस्त्य ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे।
पुराणों में यह कथा आई है कि महर्षि अगस्त्य की पत्नी महान पतिव्रता तथा श्री विद्या की आचार्य है, जो लोपामुद्रा के नाम से विख्यात है।लोपामुद्रा विदर्भ-नरेश की पुत्री थी। महर्षि अगस्त और लोपामुद्रा आज भी पूज्य और वंदनीय है। नक्षत्र मंडल में यह विद्यमान है। दुर्गाष्टमी आदि व्रतों उपवासो में इन दंपति की आराधना उपासना की जाती है।
महर्षि अगस्त्य ने अपनी तपस्या से अनेक के स्वरूपों का दर्शन किया था इसलिए यह मंत्रदृष्टा ऋषि कहलाते हैं। ऋग्वेद के अनेक मंत्र इनके द्वारा दृष्ट हैं।
महर्षि अगस्त्य ही ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों के दृष्टा हैं । साथ ही उनके पुत्र दृढ़च्युत और दृढ़च्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मंडल के 25 वें और 26 वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं।
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महर्षि अगस्त्य महा तेजा तथा महा प्रतापी ऋषि थे। इनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि एक बार समुद्र में रहने वाले राक्षसों के अत्याचार से देवता घबरा गए और महर्षि अगस्त्य ऋषि की शरण में आए और अपना दुख सुना कर उनसे सहायता करने की प्रार्थना करने लगे।फल स्वरुप महर्षि अगस्त जी ने समुद्र का सारा जल पी लिया इससे सभी राक्षसों का विनाश हो गया।
इसी प्रकार इल्वल तथा वातापी नामक दुष्ट राक्षसों द्वारा हो रहे ऋषि संहार को इन्होंने बंद किया और लोक का महान कल्याण हुआ।
एक बार विंध्याचल पर्वत सूर्य का मार्ग रोक कर खड़ा हो गया जिससे सूर्य का आवागमन ही बंद हो गया। सूर्य सहायता प्राप्त करने के लिए इनकी शरण में आए, तब इन्होंने विंध्य पर्वत को स्थिर कर दिया और कहा जब तक मैं दक्षिण देश से ना लौटें, तब तक तुम ऐसे ही झुके रहो।और ऐसा ही हुआ, विंध्याचल नीचे हो गया।महर्षि अगस्त्य फिर से लौटे नहीं, अतः विंध्य पर्वत उसी प्रकार निम्न रूप में स्थिर रह गया और भगवान सूर्य का सदा के लिए मार्ग प्रशस्त हो गया।
इस प्रकार महर्षि अगस्त ने अनेक असंभव कार्य अपने मंत्र शक्ति से बहुत ही आसानी से कर दिखाया और लोगों का कल्याण किया। भगवान श्री राम जब वन गमन के लिए गए थे तब वह इनके आश्रम पर पधारे थे।
भक्ति की प्रेम मूर्ति महामुनी सुतीक्ष्ण महर्षि अगस्त जी के शिष्य थे। महर्षि अगस्त्य जी ने अगस्त्य संहिता जैसे ग्रंथों का वर्णन किया जो तांत्रिक साधकों के लिए महान उपादेय हैं ।
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