ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र का जीवन परिचय
ऋषि विश्वामित्र rishi vishwamitra |
ऋषि विश्वामित्र कौन थे? Who was Rishi Vishwamitra?
ऋषि विश्वामित्र के सामान शायद ही कोई हो। इन्होने अपने पुरुषार्थ से,अपनी तपस्या के बल से क्षत्रिय से ब्रह्म को प्राप्त किया, राजश्री से ब्रह्म ऋषि बने, देवता और ऋषियों के लिए पूज्य बन गए और उन्हें सप्त ऋषि यों में अन्यत्र स्थान प्राप्त हुआ। साथ ही सबके लिए वंदनीय बन गए।
ऋषि विश्वामित्र का आविर्भाव कैसे हुआ?
ऋषि विश्वामित्र के आविर्भाव का विस्तृत आख्यान पुराणों तथा महाभारत आदि में आया है। तदनुसार कौशिक वंश में उत्पन्न चंद्रवंशी महाराज गाधि की सत्यवती नामक एक श्रेष्ठ कन्या हुई. जिसका विवाह मुनि श्रेष्ठ भृगुपुत्र ऋचीक के साथ संपन्न हुआ।
ऋचीक ने पत्नी की सेवा से प्रसन्न होकर अपने तथा महाराज गाधि को पुत्र संपन्न होने के लिए यज्ञिय चरु (यज्ञ में पकाया हुआ चावल ) को अभिमंत्रित कर सत्यवती को प्रदान करते हुए कहा देवी यह दिव्य चरु दो भागों में विभक्त है। इसके भक्षण से यथेष्ट पुत्रो की प्राप्ति होगी। इसका एक भाग तुम ग्रहण करना और दूसरा भाग अपनी माता को देना। इससे तुम्हें एक श्रेष्ठ महा तपस्वी पुत्र प्राप्त होगा और तुम्हारी माता को क्षत्रिय शक्ति संपन्न तेजस्वी पुत्र होगा। सत्यवती दोनों चरु भाग प्राप्त कर बड़ी प्रसन्न हुई।
अपनी पत्नी सत्यवती को ऐसा निर्देश देकर महर्षि ऋचीक तपस्या के लिए चले गए. इसी समय महाराज गाधि भी तीर्थ दर्शन के प्रसंगवश अपनी कन्या सत्यवती का समाचार जानने आश्रम में आए।
इधर सत्यवती ने पति द्वारा प्राप्त चरु के दोनों भाग माता को दे दिए। और देव योग से माता द्वारा चरु भक्षण में विपर्यय हो गया. जो भाग सत्यवती को प्राप्त होना था उसे माता ने ग्रहण कर लिया और जो भाग माता के लिए था उसे सत्यवती ने ग्रहण कर लिया।
ऋषि- निर्मित चरू का प्रभाव अक्षुण्ण था , अमोघ था. चरु के प्रभाव से गाधि पत्नी तथा देवी सत्यवती दोनों में गर्भ के चिन्ह स्पष्ट होने लगे। इधर ऋचीक मुनि ने योग बल से जान लिया कि चरु भक्षण में विपर्यय हो गया है। यह जानकर सत्यवती निराश हो गई, परंतु मुनि ने उन्हें आश्वस्त किया। यथा समय सत्यवती के पुत्र रूप में जमदग्नि पैदा हुए और उन्हीं के पुत्र परशुराम हुए। दूसरी और गाधि पत्नी ने चरु के प्रभाव से दिव्य ब्रह्म शक्ति संपन्न विश्वामित्र को पुत्र रूप में प्राप्त किया।
विश्वामित्र का अर्थ
इतिहास के पन्नों में ऋषि विश्वामित्र का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा हुआ है। वह एक प्रजा प्रिय राजा और एक महान ऋषि थे. :-' विश्वामित्र शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है :-'विश्व' और 'मित्र ' जिसका अर्थ है विश्व में सबके साथ मैत्री अथवा प्रेम।इसे भी पढ़े 👉 महर्षि वाल्मीकि
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विश्वामित्र का महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में जाना
विश्वामित्र का वशिष्ठ ऋषि के आश्रम में सत्कार
ऋषि वशिष्ठ जी ने विश्वामित्र और उनकी सेना के स्वागत के लिए कामधेनु की पुत्री नंदिनी गाय का आह्वान किया और उस से प्रार्थना की कि वह विश्वमित्र एवं उनकी समस्त सेना के लिए सभी प्रकार की सुख सुविधाओं की व्यवस्था कर दें।ऋषि के अनुरोध पर नंदिनी ने राजा और उनकी समस्त सेना के लिए स्वादिष्ट पकवानो और समस्त सुविधाओं की वयवस्था कर दी। आश्रम की सभी सुख-सुविधाओं को देखकर विश्वामित्र चकित हो गए उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि एक आश्रम में उनकी विशाल सेना के लिए इतनी सुख सुविधा की व्यवस्थाकी जा सकती है।विश्वामित्र ने जब इन सभी व्यवस्था के बारे में ऋषि वशिष्ठ से पूछा तब उन्होंने बड़े ही विनय पूर्वक कह दिया कि यह सब तो उनकी गाय नंदिनी की ही कृपा से हुआ है। यह सुनने पर ऋषि विश्वामित्र को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि एक गाय इन सब चीजों की व्यवस्था कैसे कर सकती है ?यह जरूर कोई एक अनोखी ही गाय होगी। इसलिए विश्वामित्र ने ऋषि वशिष्ठ से नंदिनी गाय को मांगने काअनुरोध किया परंतु ऋषि वशिष्ठ जी ने उनके इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया ऋषि वशिष्ठ जी ने कहा कि यह गाय हमारे सभी आश्रम वासियों की सुख सुविधाओं का ध्यान रखती है, यह हमारा जीवन है अतः मैं इसे किसी भी कीमत पर किसी को नहीं दे सकता। मना करने पर राजा विश्वामित्र अपनी सेना समेत वापस चले गए परंतु उन्हें नंदिनी गाय का स्मरण बराबर होता रहा।
राजा विश्वामित्र के राज्य में अकाल
सैनिको का ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में नंदिनी को लेने जाना
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इस पराजय से हतप्रभ हो राजा विश्व रथ अपने पुत्र को राज सिंहासन सौंपकर तपस्या करने के लिए हिमालय की कंदरा में चले गए। कठोर तपस्या करके विश्वा विश्वनाथ जी ने महादेव जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे दिव्य शक्तियों के साथ संपूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया।
विश्वामित्र का तपस्या में लीन होना
विश्वामित्र का प्रतिशोध
हिमालय की कंदरा में तपस्या करके धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करके विश्वामित्र प्रतिशोध लेने के लिए ऋषि वशिष्ठ जी के आश्रम में पहुंचे । और ऋषि वशिष्ठ को युद्ध करने के लिए ललकारा। वशिष्ठ जी ने भी अपना धनुष संभाल लिया और बोले' कि मैं तेरे सामने खड़ा हूं, तू मुझ पर वार कर'।क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने एक के बाद एक आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र,रुद्राष्टक तथा पाशुपतास्त्र एक साथ छोड़ दिया जिन्हें वशिष्ठ जी ने अपने मार्ग अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वामित्र ने और भी क्रोधित होकर विभिन्न अस्त्रों का प्रयोग कर डाला। वशिष्ठ जी ने उन सब को नष्ट करके उन पर ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। ब्रह्मास्त्र के भयंकर ज्योति और गगनभेदी नाद से सारा संसार पीड़ा से तड़पने लगा. सब ऋषि मुनि महर्षि वशिष्ठ से प्रार्थना करने लगे कि आपने विश्वामित्र को परास्त कर दिया है। अब आप ब्रह्मास्त्र से उत्पन्न हुई ज्वाला को शांत करें। इस प्रार्थना से द्रवित होकर उन्होंने ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाया और मंत्रों से उसे शांत किया।
विश्वामित्र की कठोर तपस्या
ऋषि वशिष्ठ के साथ हुए युद्ध में पुनः विश्वामित्र की पराजय हुई जिससे विचलित हो वह अपनी पत्नी सहित दक्षिण दिशा की ओर चल दिए और। और कठोर तपस्या करते हुए उन्होंने अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवन यापन करना आरंभ कर दिया।
उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी विश्वामित्र खुश नहीं हुए क्योंकि उन्हें लगा कि ब्रह्मा जी ने उन्हें केवल 'राजर्षि ' का ही पद दिया 'महर्षि -देवऋषि' का पद नहीं। अपनी तपस्या को अपूर्ण समझते हुए विश्वामित्र पुनः घोर तपस्या में लीन हो गए।
इस बार उन्होंने प्राणायाम से सांस रोककर महा दारुण तप किया। इस तप से प्रभावित देवताओं ने ब्रह्मा जी से निवेदन किया कि भगवान विश्वामित्र की तपस्या अब पराकाष्ठा को पहुंच गई है। अब वह क्रोध और मोह की सीमाओं को पार कर गए हैं। अब इनके तेज से सारा संसार प्रकाशित हो उठा है। अतः आप प्रसन्न होकर इनकी अभिलाषा पूर्ण कीजिए। देवताओं के इन वचनों को सुनकर ब्रह्माजी ने उन्हें 'ब्राह्मण' की उपाधि प्रदान की किंतु विश्वामित्र ने कहा कि हे भगवान मैं अपनी तपस्या को तब तक सफल नहीं समझूंगा जब तक मुझे ऋषि वशिष्ठ जी 'ब्राह्मण' और 'ब्रह्म ऋषि' मान नहीं लेते ।
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